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राम कथा - अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6496
आईएसबीएन :81-216-0760-4

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, दूसरा सोपान

तेरह


कुटिया के द्वार पर एक पेड़ की छाया में सीता छोटा-मोटा घरेलू काम लिए बैठी थीं। उनके पास ही बैठी सुमेधा, तकली पर सूत कात रही थी। बीच-बीच में बातें भी हो जाती थी और फिर दोनों का ध्यान अपने-अपने काम की ओर चला जाता था।

दोपहर तक का काम समाप्त कर, सुमेधा हाथों को उलझाए रखने का कोई काम लेकर सीता के पास आ बैठती, वन-ग्राम के अनेक समाचार दे जाती। उद्घोष बहुत व्यस्त था : कभी शस्त्र-निर्माण, कभी प्रशिक्षण, कभी अभ्यास, कभी खेतों में काम, कभी गांव के कार्यालय में, कभी मूर्ति निर्माण, कभी कुंभ...सुमेधा भी अपने ढंग से व्यस्त थी; किंतु अपनी सारी व्यस्तता में भी सीता के पास आने का समय वह निकाल ही लेती, सिवाय उन दिनों के, जिन दिनों सीता को उनके ग्राम जाना होता था।

इधर लक्ष्मण भी काफी व्यस्त हो उठे थे। वन से ईंधन, कंद-मूल, फल अथवा अहेर का लाना तो नित्य कर्म था ही; कुटीरों को दृढ़ करने, बाड़े की मरम्मत तथा अन्य कामों के लिए लकड़ी की अतिरिक्त आवश्यकता भी रहती थी...। अनेक कार्यों से वन के विभिन्न आश्रमों तथा अनेक ग्रामों में भी जाना पड़ता था। सम-वयस्क युवकों से उनका संपर्क स्थापित हो गया था। उनके प्रभाव क्षेत्र में आश्रमों के ब्रह्मचारी भी थे और ग्रामवासी युवक भी। लक्ष्मण उनके नेता बन उन्हें शस्त्रों का अभ्यास कराया करते थे। दोपहर के भोजन के पश्चात् प्रायः लक्ष्मण इसी शिक्षण के लिए चले जाया करते थे।

राम ने सीता को शस्त्राभ्यास करा दिया था; मुखर को समर्थ बना दिया था; और अब सुमेधा भी दोपहर को सीता के पास आ जाती थी। उसने उद्घोष से थोड़ा-बहुत शस्त्र-परिचालन भी सीख लिया था। राम भी अपने परिवेश पर दृष्टिपात करने के लिए चले जाया करते थे।

किंतु अपने आश्रम से अधिक दूर नहीं जाते थे। सीता एक सीमा तक ही अपनी सहायता कर सकती थीं, आवश्यकता होने पर सहायता के लिए मुखर भी वहां था। किंतु शस्त्रागार अपनी रक्षा में स्वयं समर्थ नहीं था। राम अथवा लक्ष्मण में से एक का आश्रम के समीप ही कहीं बने रहना आवश्यक था।...आज भी सुमेधा को, सीता के पास आया देख वे थोड़ी देर के लिए, कालकाचार्य से मिलने चले गए थे।

...सहसा सीता ने आश्रम के बाड़े का फाटक खुलने का शब्द सुना। उन्होंने विस्मय से गर्दन घुमाकर उस ओर देखा-इतनी जल्दी तो न राम के आने की आशा थी, न लक्ष्मण की।

आगंतुक कोई अन्य ही था-सीता के लिए पूर्णतः अपरिचित! आरंभिक दिनों में, इस प्रकार किसी अपरिचित को समीप आते देखकर सीता बुरी तरह चौंक उठती थीं। किंतु अब कुछ-कुछ अभ्यास हो गया था। इस वन में भी खोज-खोजकर, दूर और पास के लोग राम को मिलने के लिए आते थे। राम थे ही ऐसे-किसी भी व्यक्ति के लिए सहज-सुलभ, खुले तथा ईमानदार। कोई भी व्यक्ति आकर, उनसे अपनी समस्याएं कह, परामर्श और यदि आवश्यक हो तो सहायता प्राप्त कर सकता था।

कदाचित्; आगंतुक भी कोई ऐसा ही व्यक्ति रहा होगा।

आगंतुक स्थिर पगों से अब सीता और सुमेधा की ओर बढ़ रहा था। सीता ने देखा-वह कोई स्थानीय व्यक्ति नहीं लगता था। वह ऊंचा-लंबा, और स्वस्थ युवक था। वय चालीस-बयालीस के आसपास रहा होगा। रंग उसका गोरा था, सिर पर लंबे-लंबे पति केश थे। आँखें कुछ नीली थीं और उसने राजसी वेश-भूषा धारण कर रखी थी। सीता के ज्ञान के अनुसार, इस पुरुष को उत्तर कुरु के उस पार का वासी होना चाहिए था। इतनी दूर से यह राज-पुरुष, यहां क्या करने आया है?

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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